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अब अपनी रूह के छालों का कुछ हिसाब करूँ | शाही शायरी
ab apni ruh ke chhaalon ka kuchh hisab karun

ग़ज़ल

अब अपनी रूह के छालों का कुछ हिसाब करूँ

राहत इंदौरी

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अब अपनी रूह के छालों का कुछ हिसाब करूँ
मैं चाहता था चराग़ों को आफ़्ताब करूँ

मुझे बुतों से इजाज़त अगर कभी मिल जाए
तो शहर-भर के ख़ुदाओं को बे-नक़ाब करूँ

उस आदमी को बस इक धुन सवार रहती है
बहुत हसीन है दुनिया इसे ख़राब करूँ

है मेरे चारों तरफ़ भीड़ गूँगे बहरों की
किसे ख़तीब बनाऊँ किसे ख़िताब करूँ

मैं करवटों के नए ज़ाइक़े लिखूँ शब-भर
ये इश्क़ है तो कहाँ ज़िंदगी अज़ाब करूँ

ये ज़िंदगी जो मुझे क़र्ज़-दार करती रही
कहीं अकेले में मिल जाए तो हिसाब करूँ