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आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था | शाही शायरी
aankhon ka tha qusur na dil ka qusur tha

ग़ज़ल

आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था

जिगर मुरादाबादी

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आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था

तारीक मिस्ल-ए-आह जो आँखों का नूर था
क्या सुब्ह ही से शाम-ए-बला का ज़ुहूर था

वो थे न मुझ से दूर न मैं उन से दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का क़ुसूर था

हर वक़्त इक ख़ुमार था हर दम सुरूर था
बोतल बग़ल में थी कि दिल-ए-ना-सुबूर था

कोई तो दर्दमंद-ए-दिल-ए-ना-सुबूर था
माना कि तुम न थे कोई तुम सा ज़रूर था

लगते ही ठेस टूट गया साज़-ए-आरज़ू
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर चूर था

ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ून-ए-तमन्ना ज़रूर था

साक़ी की चश्म-ए-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था

पलटी जो रास्ते ही से ऐ आह-ए-ना-मुराद
ये तो बता कि बाब-ए-असर कितनी दूर था

जिस दिल को तुम ने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था

उस चश्म-ए-मय-फ़रोश से कोई न बच सका
सब को ब-क़दर-ए-हौसला-ए-दिल सुरूर था

देखा था कल 'जिगर' को सर-ए-राह-ए-मय-कदा
इस दर्जा पी गया था कि नश्शे में चूर था