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आना है यूँ मुहाल तो इक शब ब-ख़्वाब आ | शाही शायरी
aana hai yun muhaal to ek shab ba-KHwab aa

ग़ज़ल

आना है यूँ मुहाल तो इक शब ब-ख़्वाब आ

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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आना है यूँ मुहाल तो इक शब ब-ख़्वाब आ
मुझ तक ख़ुदा के वास्ते ज़ालिम शिताब आ

देता हूँ नामा मैं तुझे इस शर्त पर अभी
क़ासिद तू उस के पास से ले कर जवाब आ

ऐसा ही अज़्म है तुझे गर कू-ए-यार का
चलता हूँ मैं भी ऐ दिल-ए-पुर-इज़्तिराब आ

ये ख़स्ता चश्म वा है तिरे इंतिज़ार में
ऐ सुब्ह मुँह दिखा कहीं ऐ आफ़्ताब आ

ता ये शब-ए-फ़िराक़ की दीजूर दूर हो
ऐ रश्क-ए-माह घर में मिरे बे-नक़ाब आ

आब-ए-रवाँ ओ सब्ज़ा ओ रू-ए-निगार है
साक़ी शिताब ऐसे में ले कर शराब आ

रोएँ गले से लग के बहम ख़ूब कोई दम
क्या देखता है ऐ दिल-ए-बे-सब्र-ओ-ताब आ

बहर-ए-जहाँ में देर-शुद आमद रवा नहीं
मानिंद-ए-क़तरा जा तू ब-रंग-ए-हुबाब आ

क़ुर्बानी आज दर पे तिरे करनी है मुझे
ले कर के तेग़ तो भी बराए-सवाब आ

शायद वो तुझ को देख के ग़म खाए 'मुसहफ़ी'
तू उस के सामने तो ब-चश्म-ए-पुर-आब आ