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Mazhab शायरी | शाही शायरी

Mazhab

7 शेर

अगर मज़हब ख़लल-अंदाज़ है मुल्की मक़ासिद में
तो शैख़ ओ बरहमन पिन्हाँ रहें दैर ओ मसाजिद में

अकबर इलाहाबादी




मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं

from sectarian debate refrained
for I was not so scatter-brained

अकबर इलाहाबादी




शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें

अकबर इलाहाबादी




मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती
दुनिया के मसाइब का सबब और ही कुछ है

फ़िराक़ गोरखपुरी




मुझ से कहा जिब्रील-ए-जुनूँ ने ये भी वही-ए-इलाही है
मज़हब तो बस मज़हब-ए-दिल है बाक़ी सब गुमराही है

मजरूह सुल्तानपुरी




'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया

Why is it you seek to know, of Miir's religion, sect, for he
Sits in temples, painted brow, well on the road to heresy

मीर तक़ी मीर




बच्चा बोला देख कर मस्जिद आली-शान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान

निदा फ़ाज़ली