वो एक लम्हा जिसे तुम ने मुख़्तसर जाना
हम ऐसे लम्हे में इक दास्ताँ बनाते हैं
तालीफ़ हैदर
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ये शहर अपनी इसी हाव-हू से ज़िंदा है
तुम्हारी और मिरी गुफ़्तुगू से ज़िंदा है
तालीफ़ हैदर
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ये तेरा दिवाना रात गए मालूम नहीं क्यूँ पहरों तक
आँसू की लकीरों से कितने नक़्श-ए-जज़्बात बनाए है
तालीफ़ हैदर
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